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1.वसुदेव देवकी का विवाह 

2देवताओं द्वारा गर्भ स्तुति

3 श्री कृष्ण का ताकत प्राकट्य

4 योग माया की भविष्यवाणी 

5जन्म महोत्सव

6 पूतना उद्धार

7 सकट भंजन और तृणावर्त उद्धार 

8नामकरण संस्कार और बाल लीला 

9 उखल से बांधा जाना 

10.यमाल अर्जुन का उद्धार 

11.वृंदावन जाना वत्सासुर और बकासुर का उद्धार। 12.अघासुर का उद्धार 

13.ब्रह्मा जी का मोह और उसका नास

14. ब्रह्मा स्तुति 

15.धेनु का सुर का वध, कालिया नाग नाथन

16. कालिया पर कृपा 

17 .कालिया के दह में आने की कथा, दावानल से बचाना।

18. पर लंबा सुर का उद्धार

19.   गौ ओ और गोपो को दावा नल से बचाना

20.  वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन 

21. वेणु गीत 

22. चीरहरण 

23. यज्ञ पत्नियों पर कृपा

24 .  इंद्र यज्ञ निवारण 

25 गोवर्धन धारण

26 नंद बाबा और गोपो की कृष्ण के प्रभाव के बारे में चर्चा चर्चा

27.  श्री कृष्ण का अभिषेक

28. वरुण लोक से नंद जी को छुड़ाकर लाना।

29 रासलीला का आरंभ 

30. विरह गीत।

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88. शिवजी का संकटमोचन

भगवान शंकर ने समस्त भोगों का परित्याग कर रखा है; परंतु देखा यह जाता है कि जो देवता असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे प्रायः धनी और भोग संपन्न हो जाते हैं। और भगवान विष्णु लक्ष्मी पति है, परंतु उनकी उपासना करने वाले प्रायः धनी और भोग सपन्न नहीं होते। दोनों प्रभु त्याग और भोग की दृष्टि से एक दूसरे से विरुद्ध स्वभाव वाले हैं, परंतु उनके उपासको को उनके स्वरूप के विपरीत फल मिलता है।"  इस विषय में बड़ा संदेह है कि  त्यागी की उपासना से भोग और लक्ष्मीपति की उपासना से त्यागकैसे मिलता हैं ? श्री शुकदेव जी कहते हैं-शिव जी सदा अपनी शक्ति से युक्त रहते हैं वे सत आदि गुणों से युक्त तथा अहंकार के अधिष्ठाता हैं। अहंकार के तीन भेद हैं_वैकारिक, तेजस और तामस। त्रिविध अहंकार से 16 विकार हुए 10 इंद्रिय पांच महाभूत और एक मन। अतः इन सब के अधिष्ठात्री देवताओं में से किसी एक की उपासना करने पर समस्त ऐश्वर्ययो की प्राप्ति हो जाती है। परंतु भगवान श्रीहरि तो प्रकृति से परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुण रहित है।वह सर्वज्ञ तथा सब के अंतःकरण के साक्षी है जो उनका भजन करता है वह स्वयं

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 "भागवत महापुराण आज" हे भगवान!  *वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत उत्पत्ति के पहले नहीं था और प्रलय के बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीच में भी एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है।  इसी से हम श्रुतियां इस जगतका वर्णन ऐसी उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टीमें घड़ा, लोहेमें शस्त्र और सोनेमें कुंडल आदि नाममात्र है, वास्तव में मिट्टी, लोहा और सोना ही है।  वैसे ही परमात्मामें वर्णित जगत नाममात्र है, सर्वथा मिथ्या और मनकी कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं।* भागवत महापुराण, स्कंध10, अध्याय87, श्लोक37. भगवान! आप के वास्तविक स्वरूप को जानने वाला पुरुष आपके दिए हुए पुण्य और पाप कर्मों के फल सुख एवं दुखों को नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्ता पन के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस समय विधि-निषेध के प्रतिपादक शास्त्र भी उस से निवृत हो जाते हैं; क्योंकि वह देहा भिमानियो के लिए है। उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता। जिसे आप के स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युग में की हुई लीलाओं, गुणोंका गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृ