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88. शिवजी का संकटमोचन

भगवान शंकर ने समस्त भोगों का परित्याग कर रखा है; परंतु देखा यह जाता है कि जो देवता असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे प्रायः धनी और भोग संपन्न हो जाते हैं। और भगवान विष्णु लक्ष्मी पति है, परंतु उनकी उपासना करने वाले प्रायः धनी और भोग सपन्न नहीं होते। दोनों प्रभु त्याग और भोग की दृष्टि से एक दूसरे से विरुद्ध स्वभाव वाले हैं, परंतु उनके उपासको को उनके स्वरूप के विपरीत फल मिलता है।"


 इस विषय में बड़ा संदेह है कि 

त्यागी की उपासना से भोग और लक्ष्मीपति की उपासना से त्यागकैसे मिलता हैं ?

श्री शुकदेव जी कहते हैं-शिव जी सदा अपनी शक्ति से युक्त रहते हैं वे सत आदि गुणों से युक्त तथा अहंकार के अधिष्ठाता हैं। अहंकार के तीन भेद हैं_वैकारिक, तेजस और तामस। त्रिविध अहंकार से 16 विकार हुए 10 इंद्रिय पांच महाभूत और एक मन। अतः इन सब के अधिष्ठात्री देवताओं में से किसी एक की उपासना करने पर समस्त ऐश्वर्ययो की प्राप्ति हो जाती है। परंतु भगवान श्रीहरि तो प्रकृति से परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुण रहित है।वह सर्वज्ञ तथा सब के अंतःकरण के साक्षी है जो उनका भजन करता है वह स्वयं भी गुणातीत हो जाता है।

जब धर्मराज युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ कर चुके थे तब भगवान से विविध प्रकार के धर्मों का वर्णन सुनते समय उन्होंने भी यही प्रश्न किया था। भगवान श्री कृष्ण सर्वशक्तिमान परमेश्वर है मनुष्य के कल्याण के लिए ही उन्होंने यदुवंश में अवतार धारण किया था। राजा युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर और उनकी सुनने की इच्छा देखकर उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक इस प्रकार उत्तर दिया था।

भगवान श्री कृष्ण ने कहा_
राजन! जिस पर मैं कृपा करता हूं उसका सब धन धीरे-धीरे छीन लेता हूं। जब वह निर्धन हो जाता है, तब उसके सगे-संबंधी उसके दु: खाकुल चित् की परवाह न करके उसे छोड़ देते हैं।

फिर वह धन के लिए उद्योग करने लगता है, तब मैं उसका वह प्रयत्न भी निष्फल कर देता हूं। इस प्रकार बार-बार असफल होने के कारण जब धन कमाने से उसका मन विरक्त हो जाता है, उसे दुःख समझ कर वह उधर से अपना मुंह मोड़ लेता है और मेरे प्रेमी भक्तों का आश्रय लेकर उनसे मेलजोल करता है, तब मैं उस पर अपनी अहैतुक कृपा की वर्षा करता हूं।
मेरी कृपा से उसे परम सूक्ष्म अनंत सच्चिदानंद स्वरूप परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
इस प्रकार मेरी प्रसन्नता, मेरी आराधना बहुत कठिन है। इसी से साधारण लोग मुझे छोड़कर मेरे ही दूसरे रूप अन्यान्य देवताओं की आराधना करते हैं।
दूसरे देवता आशुतोष है। वे झटपट पिघल पडते हैं और अपने भक्तों को साम्राज्य लक्ष्मी दे देते हैं। उसे पाकर वे उच्छश्रंकल प्रमादी और उन्मत्त हो उठते हैं और अपने वरदाता देवताओं को भी भूल जाते हैं तथा उनका तिरस्कार कर बैठते हैं।

भागवत महापुराण दशम स्कंध, अध्याय 88, श्लोक1 से 11.

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