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 "भागवत महापुराण आज"

हे भगवान! 

*वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत उत्पत्ति के पहले नहीं था और प्रलय के बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीच में भी एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है। 

इसी से हम श्रुतियां इस जगतका वर्णन ऐसी उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टीमें घड़ा, लोहेमें शस्त्र और सोनेमें कुंडल आदि नाममात्र है, वास्तव में मिट्टी, लोहा और सोना ही है। 


वैसे ही परमात्मामें वर्णित जगत नाममात्र है, सर्वथा मिथ्या और मनकी कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं।*


भागवत महापुराण, स्कंध10, अध्याय87, श्लोक37.

भगवान!

आप के वास्तविक स्वरूप को जानने वाला पुरुष आपके दिए हुए पुण्य और पाप कर्मों के फल सुख एवं दुखों को नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्ता पन के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस समय विधि-निषेध के प्रतिपादक शास्त्र भी उस से निवृत हो जाते हैं; क्योंकि वह देहा भिमानियो के लिए है।

उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता।

जिसे आप के स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युग में की हुई लीलाओं, गुणोंका गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृदय में बैठा लेता है तो अनंत, अचिंत्य, दिव्यगुणगणोंके निवास स्थान प्रभो!आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप- पुण्यो के फल सुख-दुखो और विधि-निषेधो से अतीत हो जाता है। क्योंकि आप ही उनकी मोक्ष स्वरुप गति है।(परन्तु इन ज्ञानी और प्रेमियों को छोड़कर और सभी शास्त्र बंधन में है तथा वे उसका उल्लंघन करने पर दुर्गति को प्राप्त होते हैं)।27

हे अनंत!

ब्रह्मा आदि देवताआपका अंत नहीं जानते, ना आप ही जानते और ना तो वेदों के मुकुट मणि उपनिषद ही जानती है; क्योंकि आप अनंत हैं। 

उपनिषदें 'नमो नमः', 'जय हो, जय हो'यह कह कर आप में चरितार्थ होती है। 

इसलिए मैं भी 'नमो नमः' 'जय हो''जय हो' यही कहकर आपके चरण-कमल की उपासना करता हूं।28।

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