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47से54

47.भ्रमर गीत 48. कुब्जा के घर 49. अक्रूर जी हस्तिनापुर 50.जरासंध 51. कालयवन52. द्वारकागमन53. रुक्मणि हरण54. रूक्मणी विवाह

गोपियों ने कहा_

हमारे प्यारे श्री कृष्ण! तुम ही हमारे जीवन के स्वामी हो, सर्वस्व हो। प्यारे! तुम लक्ष्मीनाथ हो तो क्या हुआ? हमारे लिए तो ब्रजनाथ ही हो।हम ब्रज- गोपियों के एकमात्र तुम्ह हीसच्चे स्वामी हो। श्याम सुंदर! तुमने बार-बार हमारी व्यथा मिटाई है, हमारे संकट काटे हैं। गोविंद! तुम गौओं से बहुत प्रेम करते हो। क्या हम गौए नहीं है? तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें ग्वाल बाल, माता पिता, गोएऔर हम गोपियां सब कोई है_दुख के अपार सागर में डूब रहा है। तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी रक्षा करो। 52/47/10

गोपगणों ने कहा__

उद्धव जी! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे मन की एक एकवृत्ति,एक एक संकल्प श्री कृष्ण के चरण कमलों के ही आश्रित रहे। उन्हीं की सेवा के लिए उठे और उन्हीं में लगी भी रहे। हमारी वाणी नित्य निरंतर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं की आज्ञा पालन और सेवा में लगा रहे। 66/47/10

उद्धव जी! हम सच कहते हैं,हमें मोक्ष की इच्छा बिल्कुल नहीं है। हम भगवान की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म ले__वहां शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावे कि हमारे अपने ईश्वर श्री कृष्ण में हमारे प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती रहे।67/47/10

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1से30

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88. शिवजी का संकटमोचन

भगवान शंकर ने समस्त भोगों का परित्याग कर रखा है; परंतु देखा यह जाता है कि जो देवता असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे प्रायः धनी और भोग संपन्न हो जाते हैं। और भगवान विष्णु लक्ष्मी पति है, परंतु उनकी उपासना करने वाले प्रायः धनी और भोग सपन्न नहीं होते। दोनों प्रभु त्याग और भोग की दृष्टि से एक दूसरे से विरुद्ध स्वभाव वाले हैं, परंतु उनके उपासको को उनके स्वरूप के विपरीत फल मिलता है।"  इस विषय में बड़ा संदेह है कि  त्यागी की उपासना से भोग और लक्ष्मीपति की उपासना से त्यागकैसे मिलता हैं ? श्री शुकदेव जी कहते हैं-शिव जी सदा अपनी शक्ति से युक्त रहते हैं वे सत आदि गुणों से युक्त तथा अहंकार के अधिष्ठाता हैं। अहंकार के तीन भेद हैं_वैकारिक, तेजस और तामस। त्रिविध अहंकार से 16 विकार हुए 10 इंद्रिय पांच महाभूत और एक मन। अतः इन सब के अधिष्ठात्री देवताओं में से किसी एक की उपासना करने पर समस्त ऐश्वर्ययो की प्राप्ति हो जाती है। परंतु भगवान श्रीहरि तो प्रकृति से परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुण रहित है।वह सर्वज्ञ तथा सब के अंतःकरण के साक्षी है जो उनका भजन करता है वह स्...

10/87

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