गोपियों ने कहा- नट नागर !कुछ लोग तो ऐसे होते हैं ,जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं,और कुछ लोग प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं। परंतु कोई कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते।प्यारे !इन तीनों में तुम्हें कौन सा अच्छा लगता है?
भगवान श्री कृष्ण ने कहा_मेरी प्रिय सखियों! जो लोग प्रेम करने पर प्रेम करते हैं उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है। लेन देन मात्र है,ना तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिए ही है। इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है।
सुंदरियों! जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं_जैसे स्वभाव से ही करुणा शील सज्जन और माता पिता_उनका हृदय सौहार्द से हितेशिता से भरा रहता है, और सच पूछो तो उनके व्यवहार में निश्चल,सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है।
कुछ लोग ऐसे होते हैं,जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न ही नहीं है। ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं।
1.एक तो वे, जो अपने स्वरूप में ही मस्त रहतेहैं_जिन की दृष्टि में कभी द्वैतभाषता ही नहीं।
2.दूसरे वे, जिन्हें द्वेट तो भासता है, परंतु जो कृत कृत्य हो चुके हैं; उनका किसी से कोई प्रयोजन ही नहीं है।
3.तीसरे वे, जो जानते ही नहीं की हमसे कौन प्रेम करता है,
और
4.चौथे वे है, जो जानबूझकर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते हैं।
गोपियों! मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा करना चाहिए। मैं ऐसा केवल इसलिए करता हूं की उनकी चित्त वृत्ति और भी मुझ में लगे, निरंतर लगी ही रहे। जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुतसा धन मिल जाए और फिर खो जाए तो उसके हृदय में खोए हुए धन की चिंता बढ़ जाती है, वैसे ही मैं भी मिल मिल कर छिप छिप जाता हूं।
गोपियों! इसमें संदेह नहीं कि तुम लोगों ने मेरे लिए लोग मर्यादा वेद मार्ग और अपने सगे संबंधियों को भी छोड़ दिया है ऐसी स्थिति में तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाए अपने सौंदर्य और सुहाग की चिंता न करने लगे मुझ में ही लगी रहे इसीलिए परोक्ष रूप से तुम लोगों से प्रेम करता हुआ ही में छिप गया था। इसलिए तुम लोग मेरे प्रेम में दोस्त मत निकालो तुम सब मेरी प्यारी हो और मैं तुम्हारा प्यारा हूं।
*मेरी प्यारी गोपियों! तुमने मेरे लिए घर गृहस्थी की उन बेडियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमरशरीरसे_ अमरजीवनसे अनंत काल तक तुम्हारे प्रेम,सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूं तो भी नहीं चुका सकता। मैं जन्म-जन्म के लिए तुम्हारा ऋणी हूं ।तुम अपने सौम्य स्वभाव से,प्रेम से मुझे ऊऋण कर सकती हो।परंतु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूं।*
भागवत महापुराण स्कंध 10 अध्याय 32 श्लोक 22
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