"भागवत महापुराण आज" हे भगवान! *वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत उत्पत्ति के पहले नहीं था और प्रलय के बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीच में भी एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है। इसी से हम श्रुतियां इस जगतका वर्णन ऐसी उपमा देकर करती हैं कि जैसे मिट्टीमें घड़ा, लोहेमें शस्त्र और सोनेमें कुंडल आदि नाममात्र है, वास्तव में मिट्टी, लोहा और सोना ही है। वैसे ही परमात्मामें वर्णित जगत नाममात्र है, सर्वथा मिथ्या और मनकी कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं।* भागवत महापुराण, स्कंध10, अध्याय87, श्लोक37. भगवान! आप के वास्तविक स्वरूप को जानने वाला पुरुष आपके दिए हुए पुण्य और पाप कर्मों के फल सुख एवं दुखों को नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्ता पन के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस समय विधि-निषेध के प्रतिपादक शास्त्र भी उस से निवृत हो जाते हैं; क्योंकि वह देहा भिमानियो के लिए है। उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता। जिसे आप के स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युग में की हुई लीलाओं, गुणोंका गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृ
भगवान श्री कृष्ण ने कहा --प्रिय उद्धव! योग-धारण करने से जो सिद्धियां प्राप्त होती है उनका नाम-निर्देश के साथ वर्णन सुनो_ धारणा-योग के पारगामी योगियों ने 18 प्रकार की सिद्धियां बतलाइ हैं।उनमें आठ सिद्धियां तो प्रधान रूप से मुझ में ही रहती है और दूसरों में न्यून; तथा 10 सत्व गुण के विकास से भी मिल जाती है। उनमें तीन सिद्धियां तो शरीर की है_1."अणिमा", 2." महिमा" और 3."लघिमा"। 4.इंद्रियों की एक सिद्धि है_ "प्राप्ति"। 5.लौकिक और पारलौकिक पदार्थों का इच्छा अनुसार अनुभव करने वाली सिद्धि "प्राकाम्य" में है। 6.माया और उसके कार्यों को इच्छा अनुसार संचालित करना "ईशिता" नाम की सिद्धि है। 7.विषयों में रहकरभी उनमें आसक्त ना होना"वशिता" है। वशीता 8.जिस जिस सुख की कामना करें उसकी सीमा तक पहुंच जाना "कामावसायिता"नाम की आठवीं सिद्धि है। यह आठों सिद्धियां मुझ में स्वभाव से ही रहती है और जिन्हें में देता हूं उन्हीं को अंशतः प्राप्त होती है। इनके अतिरिक्त और भी कहीं सिद्धियां है। 1.शरीर में भूख- प्यास आदि वेगों